आगम निðा ः संयम और चरित्र के धनी ः पं. गुbाबचंद्र "पुष्प'
"पाषाण को पूज्यता प्रदान कराने की कbा मेंनिष्णात पं. गुbाबचंद्र "पुष्प' जी बहुमुँखी प्रतिभा के धनी रहे, आपका दृढ़ निश्चय एवं आत्म विश्वास आपके संयमित जीवन का द्योतक है । आगम निðा, संयमी और चारित्र के धनी "पुष्प' जी सद् ग्रहस्थ ही नहीं सद्श्रावकरत्न भी रहे ।
मानव जीवन को सार्थक करना और कराना संत पुरुषों का कत्र्तव्य है । साधना पथ पर सभी नहीं चb पाते, साधना का उपदेश देना और उस पर चbना यह सार्थक किया "पुष्प' जी ने । आपने अपने जीवन में धर्म को साधना मानकर जीवन की वास्तविकता को समझा और अपनी चर्या को अनुशासित किया । समय का सही सदुपयोग कर संयम पथ पर ब¶ढ़ते चbे गये और मंजिb तक पहुँच ही गये ।
"पुष्प' जी के जीवन के कुछ विशिïताओं और उनकी आगम निðा के कुछ अनछुये पहbू रोचक प्रसंग प्रस्तुत हैं -
"पुष्प' जी की स्वानुभूति -
1. मां के संस्कार - ग्रामीण अनिश्चित दिनचर्या के कारण मेरा मंदिर जाने का समय भी निश्चित नहीं था । माँ का अनुशासन जिनाbय के प्रति अत्यधिक कठोर था । देवदर्शन के बिना भोजन भी नहीं मिbता थ । यही नहीं, पूरी सतर्कता रखी जाती थी, यथा मंदिर में कौन-कौन था ? मंदिर के द्वारा खुbे थे या बन्द ? परिक्रमा कितनी bगाई थी ? चन्दन bगाकर नहीं आये ? चावb कैसे चढ़ाये थे ? नमस्कार कैसे किया था ? आदि पूछा जाता था । तब भोजन मिbता था ।
माँ के द्वारा मेरे जीवन में रौपे गये वे संस्कार आज पुष्िपत और फbित हो रहे हैं। आज माँ के वे प्रश्न जब भी याद आते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा से माथा झुक जाता है । यदि माँ सतर्क होकर इस पृथ्वी के संस्कारों का आरोपण नहीं करती, तो हमारा जीवन भी पापाचरण में bिá होता । मैं भी किसी व्यवसाय में bगा संसार ब¶ढ़ाने का कार्य कर रहा होता ।
2. पाप का दाग - बचपन चंचb होता ही है, या कहें चंचbता ही बचपन है । चाहे वह किसी का हो । उसी बचपन का एक प्रेरक प्रसंग मुझे आज भी याद है । एक बार ठण्ड के दिनों में एक किसान घी bेकर आया । माँ ने पूछा- तपे दूध का ही है, कƒे दूध का तो नहीं । किसान ने मुझे घी चखने को दिया । चखते ही चेहरे पर स्वादिïता झbकने bगी । इतने में मझbे भैया जगत भी आ गये । उनके मन में भी घी चखने के भाव आये । जैसे ही किसान घी रख कर बाहर गया, उन्होंने चुपचाप घी निकाbा । इतने में किसी के आने की आहट हुई । अब क्या करें ? चोरी पकड़ी न जाये, इसीbिये घी जेब में रख bिया । माँ ने आते ही काम बता दिया । वे मन मारकर काम करने bगे । इतनी देर में घी गरमाहट पाकर कुर्ते की जेब से टपकने bगा । राधा बहिन ने माँ को संकेत किया । माँ ने सहजता में मझbे को बुbाया और कहा - बेटा ! पाप कितना भी छिपाओ, वह प्रकट हो ही जाता है । जिस तरह यह कुुर्ता खराब हुआ, उसी तरह पाप जीवन को भी दाग दे जाता है, जिसे मिटाने के bिये कई जीवन bग जाया करते हैं ।
माँ की यह सीख मुझे आज भी याद है । जब भी मन, पाप, कषाय की ओर जाता है, तो माँ के वेशब्द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं ।पाप का दाग जीवन रुपी चादर खराब कर देता है और पाप प्रवृत्ति पर अंकुश bग जाता है ।
श्रद्धा का चमत्कार - ककरवाहा प्रवास मेंआपके ज्येð पुत्र शिखरचंद्र को बड़ी चेचक निकbी, चेचक के प्रकोप से अत्यंत पीड़ा का अनुभव हुआ । पुत्र की दोनों आँखें चिपक गई और पैर भी घुटने के पास चिपकने bगे, चbना-फिरना बंद हो गया । भोजन अल्प रह गया । माँ को अत्याधिक चिन्ता एवं आशंका हुई ।
पड़ौस में¶ रहने वाbे अजैन परिवारों ने शीतbामाता पर जb च¶ढ़ा देने या चढ़ावा देने की सbाह दी । जिसके चरणामृत सपुत्र का रोग ठीक होने का आश्वासन दिया । पुत्र व्यामोह क्या नहीं करवाता ? अतः माँ ने प्रातः शीतbा माता को जb चढ़वाने की व्यवस्था कर bी । किन्तु रात्रि में "पुष्प' जी को पता चbा तो उन्होंने माँ से आत्मविश्वास से साफ कहा "मेरा b¶ड़का कb मरता था सो आज मर जाये bेकिन मैं किसी देवी की पूजा करने नहीं दूंगा ।'' बाद में शांत चित्त होकर समझाया कि हमारी जिनेन्द्र देव के प्रति आस्था और श्रद्धा नहीं छूटना चाहिए । तुम कb से ही मंदिर जी से गन्धोदक bाकर bगाना, पुत्र ठीक हो जायेगा । "" माँ ने श्रद्धापूर्वक गन्धोदक bगाना शुरु किया । 7 दिन के अन्दर ही बेटे की आँखें खुb गई और पैर ठीक हो गये । पुत्र को स्वास्थ्य bाभ हो गया । "पुष्प' जी की जिन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से मन भाव विभोर हो उठता है। (श्रीमती रामबाई धर्मपत्नी पं. पुष्प जी ककरवाहा /टीकमगढ़)
4. पर पीड़ा की कसक - पण्डित "पुष्प' जी के जीवन में कत्र्तव्य की सुगंध हमेशा से महती रही है और उस सुगंध से आस-पास का वातावरण सुवासित होता रहा । एक बार विधान कारकर bौटते समय बड़ा गांव से ककरवाहा जाने की बस नहीं¶ मिbी । यातायात के अन्य साधन उपbब्ध न होने की स्थिति में उन्हें ककरवाहा पैदb ही जाना प¶ड़ा। पहुँचते-पहुँचते रात्रि के 11 बज गये । उसी रात 2 बजे किसी ने द्वारा खटखटाया ।श्रीमती रामबाज्ञ ने आहट सुनी । पूछा - कौन है ? रुआंसी आवाज सुनाई दी - वैदन बैन , मैं bखेरन हूँ । मोरो पेट पिराओ है (दर्द हो रहा है) मछरिया सी तbफ रई हूँ । हम अबै नई आदते पै तकbीफ मौत हो रई है, तनक पण्डित जी को दिखाने है ।''
पण्डितजी की थकान के बारे में विचारकर रामबाई ने कहा, अबई सोये हैं, सबेरे दिखाईयो ।'' सहधर्मिणी के मना करने पर वह चbी गई । पर पण्डितजी की कत्र्तव्य एवं करुणा भावना ने उन्हें रुकने नहीं दिया । तुरन्त दवा का थैbा bेकर उसके घर जाकर एक-डेढ़ घंटे चिकित्सा की । 4 बजे वापिस आकर सामायिक में बैठने bगेे, तो श्रीमती ने कहा - एकाध घण्टा bेट bो । इतनी देर से आये थे, सो भी नहीं पाये ।
पण्डितजी ने सहजता से समझाया, कोई दुख में ही किसी के घर जाता है । जरा सोचो । यदि मैं घर में नहीं रहूँ और अपने घर में किसी को पी¶ड़ा हो जाये, तो क्या करोगी ? मेरा धर्म है कि किसी भी व्यक्ति के दर्द में उसका उपचार करुँ ।
पण्डितजी ने वैद्यकीय सेवा को कभी व्यवसायिकता से नहीं जो¶ड़ा । जिनवाणी सेवा के साथ-साथ वे जनसेवा को भी समाज रुप से फbीभूत करते रहे । जहाँ एक ओर उन्होंने अज्ञान में भटके bोगों को धर्म रास्ता बताया, वहीं दूसरी ओर दर्द और तकbीफ से घिरे bोगों की चिकित्सा कर उनके आँसू पोंछे । (पं. पूर्णचंद्र "सुमन' दुर्ग)
5. कड़वा सत्य सीख दे गया - पिता पण्डित मन्नूbाbजी के स्वर्गवास के पश्चात् "पुष्प' जी ने कपड़े के व्यवसाय को मुख्यता दी । bैकिन वैद्य बब्बा (पं. मन्नूbाb) के कारण रोगी भी आते रहे । "पुष्प' जी जो कुछ भी जानते थे उसके अनुसार दवा दे देते थे । नई दवा बनी नहीं अतः धीरे-धीरे धीरे दवा समाá हो गई । निश्चित होकर कपड़े का काम करने bगे । एक दिन दरबारीbाbजी (भैयन) इकbौता बेटा अस्वस्थ हो गया । श्रावण मास मूसbाधार बारिश से नदी, नाbे उफान पर थे । आवागमन के साधन अवरुद्ध थे । कहाँ जाये ? क्या करें ? कोई सहारा न देख "पुष्प' जी के पास पहुँचे । दीन स्वर में निवेदन किया, भैया bड़का बीमार है एक बार चb कर देेख bो । "पुष्प' जी ने कहा - मैं उसका निदान नहीं कर सकुंगा । मैं उस बारे में जानता ही नहीं हूँ। भैयन ने बुझे मन से कहा, बƒा मरे या बचे, उसका भाग्य । यदि हमारी बात बुरी न bगे तो कहूँ "जब तक बब्बा थे सबको समाधान मिbता था, अब तुम्हारे द्वार पर कौन आयेगा ?
इन शब्दों ने "पुष्प' जी के अन्तर्मन को झकझोर दिया । कड़वा सत्य öदयंग होते ही नई सीख दे गया । उस दिन का संकल्प कार्यक्रम मेंपरिणित करने के bिए आयुर्वेेदिक परीक्षा रीवा से, होम्योपैथिक, नागपुर से, इंजेक्शन टेनिंग, झांसी से करके, प्रसिद्ध चिकित्सक के रुप में स्थापित हुए । कपड़े का व्यवसाय बन्द करके 20 वर्ष सफb चिकित्सा करके आजीविकोपार्जन करते हुए जन सेवा की (ब्र. बाबूbाb जैन, ककरवाहा, बण्डा)
पाषाण को पूज्यता प्रदान कराने की कbा मेंनिष्णात पं. गुbाबचंद्र "पुष्प' जी बहुमुँखी प्रतिभा के धनी रहे, आपका दृढ़ निश्चय एवं आत्म विश्वास आपके संयमित जीवन का द्योतक है । आगम निðा, संयमी और चारित्र के धनी "पुष्प' जी सद् ग्रहस्थ ही नहीं सद्श्रावकरत्न भी रहे ।
मानव जीवन को सार्थक करना और कराना संत पुरुषों का कत्र्तव्य है । साधना पथ पर सभी नहीं चb पाते, साधना का उपदेश देना और उस पर चbना यह सार्थक किया "पुष्प' जी ने । आपने अपने जीवन में धर्म को साधना मानकर जीवन की वास्तविकता को समझा और अपनी चर्या को अनुशासित किया । समय का सही सदुपयोग कर संयम पथ पर ब¶ढ़ते चbे गये और मंजिb तक पहुँच ही गये ।
"पुष्प' जी के जीवन के कुछ विशिïताओं और उनकी आगम निðा के कुछ अनछुये पहbू रोचक प्रसंग प्रस्तुत हैं -
"पुष्प' जी की स्वानुभूति -
1. मां के संस्कार - ग्रामीण अनिश्चित दिनचर्या के कारण मेरा मंदिर जाने का समय भी निश्चित नहीं था । माँ का अनुशासन जिनाbय के प्रति अत्यधिक कठोर था । देवदर्शन के बिना भोजन भी नहीं मिbता थ । यही नहीं, पूरी सतर्कता रखी जाती थी, यथा मंदिर में कौन-कौन था ? मंदिर के द्वारा खुbे थे या बन्द ? परिक्रमा कितनी bगाई थी ? चन्दन bगाकर नहीं आये ? चावb कैसे चढ़ाये थे ? नमस्कार कैसे किया था ? आदि पूछा जाता था । तब भोजन मिbता था ।
माँ के द्वारा मेरे जीवन में रौपे गये वे संस्कार आज पुष्िपत और फbित हो रहे हैं। आज माँ के वे प्रश्न जब भी याद आते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा से माथा झुक जाता है । यदि माँ सतर्क होकर इस पृथ्वी के संस्कारों का आरोपण नहीं करती, तो हमारा जीवन भी पापाचरण में bिá होता । मैं भी किसी व्यवसाय में bगा संसार ब¶ढ़ाने का कार्य कर रहा होता ।
2. पाप का दाग - बचपन चंचb होता ही है, या कहें चंचbता ही बचपन है । चाहे वह किसी का हो । उसी बचपन का एक प्रेरक प्रसंग मुझे आज भी याद है । एक बार ठण्ड के दिनों में एक किसान घी bेकर आया । माँ ने पूछा- तपे दूध का ही है, कƒे दूध का तो नहीं । किसान ने मुझे घी चखने को दिया । चखते ही चेहरे पर स्वादिïता झbकने bगी । इतने में मझbे भैया जगत भी आ गये । उनके मन में भी घी चखने के भाव आये । जैसे ही किसान घी रख कर बाहर गया, उन्होंने चुपचाप घी निकाbा । इतने में किसी के आने की आहट हुई । अब क्या करें ? चोरी पकड़ी न जाये, इसीbिये घी जेब में रख bिया । माँ ने आते ही काम बता दिया । वे मन मारकर काम करने bगे । इतनी देर में घी गरमाहट पाकर कुर्ते की जेब से टपकने bगा । राधा बहिन ने माँ को संकेत किया । माँ ने सहजता में मझbे को बुbाया और कहा - बेटा ! पाप कितना भी छिपाओ, वह प्रकट हो ही जाता है । जिस तरह यह कुुर्ता खराब हुआ, उसी तरह पाप जीवन को भी दाग दे जाता है, जिसे मिटाने के bिये कई जीवन bग जाया करते हैं ।
माँ की यह सीख मुझे आज भी याद है । जब भी मन, पाप, कषाय की ओर जाता है, तो माँ के वेशब्द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं ।पाप का दाग जीवन रुपी चादर खराब कर देता है और पाप प्रवृत्ति पर अंकुश bग जाता है ।
श्रद्धा का चमत्कार - ककरवाहा प्रवास मेंआपके ज्येð पुत्र शिखरचंद्र को बड़ी चेचक निकbी, चेचक के प्रकोप से अत्यंत पीड़ा का अनुभव हुआ । पुत्र की दोनों आँखें चिपक गई और पैर भी घुटने के पास चिपकने bगे, चbना-फिरना बंद हो गया । भोजन अल्प रह गया । माँ को अत्याधिक चिन्ता एवं आशंका हुई ।
पड़ौस में¶ रहने वाbे अजैन परिवारों ने शीतbामाता पर जb च¶ढ़ा देने या चढ़ावा देने की सbाह दी । जिसके चरणामृत से पुत्र का रोग ठीक होने का आश्वासन दिया । पुत्र व्यामोह क्या नहीं करवाता ? अतः माँ ने प्रातः शीतbा माता को जb चढ़वाने की व्यवस्था कर bी । किन्तु रात्रि में "पुष्प' जी को पता चbा तो उन्होंने माँ से आत्मविश्वास से साफ कहा "मेरा b¶ड़का कb मरता था सो आज मर जाये bेकिन मैं किसी देवी की पूजा करने नहीं दूंगा ।'' बाद में शांत चित्त होकर समझाया कि हमारी जिनेन्द्र देव के प्रति आस्था और श्रद्धा नहीं छूटना चाहिए । तुम कb से ही मंदिर जी से गन्धोदक bाकर bगाना, पुत्र ठीक हो जायेगा । "" माँ ने श्रद्धापूर्वक गन्धोदक bगाना शुरु किया । 7 दिन के अन्दर ही बेटे की आँखें खुb गई और पैर ठीक हो गये । पुत्र को स्वास्थ्य bाभ हो गया । "पुष्प' जी की जिन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से मन भाव विभोर हो उठता है। (श्रीमती रामबाई धर्मपत्नी पं. पुष्प जी ककरवाहा /टीकमगढ़)
4. पर पीड़ा की कसक - पण्डित "पुष्प' जी के जीवन में कत्र्तव्य की सुगंध हमेशा से महती रही है और उस सुगंध से आस-पास का वातावरण सुवासित होता रहा । एक बार विधान कारकर bौटते समय बड़ा गांव से ककरवाहा जाने की बस नहीं¶ मिbी । यातायात के अन्य साधन उपbब्ध न होने की स्थिति में उन्हें ककरवाहा पैदb ही जाना प¶ड़ा। पहुँचते-पहुँचते रात्रि के 11 बज गये । उसी रात 2 बजे किसी ने द्वारा खटखटाया ।श्रीमती रामबाज्ञ ने आहट सुनी । पूछा - कौन है ? रुआंसी आवाज सुनाई दी - वैदन बैन , मैं bखेरन हूँ । मोरो पेट पिराओ है (दर्द हो रहा है) मछरिया सी तbफ रई हूँ । हम अबै नई आदते पै तकbीफ मौत हो रई है, तनक पण्डित जी को दिखाने है ।''
पण्डितजी की थकान के बारे में विचारकर रामबाई ने कहा, अबई सोये हैं, सबेरे दिखाईयो ।'' सहधर्मिणी के मना करने पर वह चbी गई । पर पण्डितजी की कत्र्तव्य एवं करुणा भावना ने उन्हें रुकने नहीं दिया । तुरन्त दवा का थैbा bेकर उसके घर जाकर एक-डेढ़ घंटे चिकित्सा की । 4 बजे वापिस आकर सामायिक में बैठने bगेे, तो श्रीमती ने कहा - एकाध घण्टा bेट bो । इतनी देर से आये थे, सो भी नहीं पाये ।
पण्डितजी ने सहजता से समझाया, कोई दुख में ही किसी के घर जाता है । जरा सोचो । यदि मैं घर में नहीं रहूँ और अपने घर में किसी को पी¶ड़ा हो जाये, तो क्या करोगी ? मेरा धर्म है कि किसी भी व्यक्ति के दर्द में उसका उपचार करुँ ।
पण्डितजी ने वैद्यकीय सेवा को कभी व्यवसायिकता से नहीं जो¶ड़ा । जिनवाणी सेवा के साथ-साथ वे जनसेवा को भी समाज रुप से फbीभूत करते रहे । जहाँ एक ओर उन्होंने अज्ञान में भटके bोगों को धर्म रास्ता बताया, वहीं दूसरी ओर दर्द और तकbीफ से घिरे bोगों की चिकित्सा कर उनके आँसू पोंछे । (पं. पूर्णचंद्र "सुमन' दुर्ग)
5. कड़वा सत्य सीख दे गया - पिता पण्डित मन्नूbाbजी के स्वर्गवास के पश्चात् "पुष्प' जी ने कपड़े के व्यवसाय को मुख्यता दी । bैकिन वैद्य बब्बा (पं. मन्नूbाb) के कारण रोगी भी आते रहे । "पुष्प' जी जो कुछ भी जानते थे उसके अनुसार दवा दे देते थे । नई दवा बनी नहीं अतः धीरे-धीरे धीरे दवा समाá हो गई । निश्चित होकर कपड़े का काम करने bगे । एक दिन दरबारीbाbजी (भैयन) इकbौता बेटा अस्वस्थ हो गया । श्रावण मास मूसbाधार बारिश से नदी, नाbे उफान पर थे । आवागमन के साधन अवरुद्ध थे । कहाँ जाये ? क्या करें ? कोई सहारा न देख "पुष्प' जी के पास पहुँचे । दीन स्वर में निवेदन किया, भैया bड़का बीमार है एक बार चb कर देेख bो । "पुष्प' जी ने कहा - मैं उसका निदान नहीं कर सकुंगा । मैं उस बारे में जानता ही नहीं हूँ। भैयन ने बुझे मन से कहा, बƒा मरे या बचे, उसका भाग्य । यदि हमारी बात बुरी न bगे तो कहूँ "जब तक बब्बा थे सबको समाधान मिbता था, अब तुम्हारे द्वार पर कौन आयेगा ?
इन शब्दों ने "पुष्प' जी के अन्तर्मन को झकझोर दिया । कड़वा सत्य öदयंग होते ही नई सीख दे गया । उस दिन का संकल्प कार्यक्रम मेंपरिणित करने के bिए आयुर्वेेदिक परीक्षा रीवा से, होम्योपैथिक, नागपुर से, इंजेक्शन टेनिंग, झांसी से करके, प्रसिद्ध चिकित्सक के रुप में स्थापित हुए । कपड़े का व्यवसाय बन्द करके 20 वर्ष सफb चिकित्सा करके आजीविकोपार्जन करते हुए जन सेवा की (ब्र. बाबूbाb जैन, ककरवाहा, बण्डा)
6. निस्पृही प्रतिðाचार्य - पंडित गुbाबचंद्र "पुष्प' को बनारस में पंचकल्याणक का आमंत्रण मिbा । सभी मुहुर्त निश्चित हो गये थे । एक बैठक में "पुष्प' जी ने कहा - मैं शुद्ध आम्नाय से ही प्रतिðा विधि सम्पन्न कराऊँगा । महिbाओं को अभिषेक करने का अवसर नहीं मिbेगा । वहाँ की पंचायत के पदाधिकारी उसे स्वीकार करने में झिझक रहे थे क्योंकि वहां महिbा अभिषेक की परम्परा थी । "पुष्प' जी ने उसी समय पंचकल्याणक कराने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया । फिर उक्त प्रतिðा अन्य किसी विद्वान ने उसी मुहूत्र्त मेें सम्पन्न की । (पं. बाबूbाb फागुल्b, बनारस)
7. माच 1978, बीना बारह (देवरी-सागर, म.प्र.) अतिशय क्षेत्र में, सन्त शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में आयोजित पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव में देश के ख्याति प्राá, bब्ध प्रतिðित विद्वान पं. जगन्मोहनbाb जी शाóी ने "पुष्प' जी को ज्ञान कल्याणक के पश्चात् स्वयं पगड़ी बांधकर "संहिता सूरि' उपाधि से अbंकृत किया एवं अपने उद्बोधन मेंपण्डितजी ने हर्ष के साथ कहा । ""मैंने कई पंचकल्याणक देखे परन्तु यहाँ "पुष्प' जी की प्रतिðा विधि एवं क्रियाओं में विशिðता महसूस की । मैंने सूक्ष्म रीति से अप्रकट रुप से सम्पूर्ण क्रिया विधि को देखा, पंचकल्याणक में सिद्धांत का समन्वय, एवं शाóोक्त क्रिया विधि के साथ उनका विवेचन पहbी बार देखने को मिbा।''
"पुष्प' जी प्रतिðा विधि के निष्णात विद्वान है, प्रतिðा की गूढ़ विधि को शाóोक्त जानते हैं,/कराते हैं । अतः उन्हें "संहिता सूरि' की उपाधि से अbंकृत कर सम्पूर्ण विद्वत वर्ग एवं समाज गौरवान्वित हैं । (डॉ. भागचंद्र भागेन्दु, दमोह)
मिbा पिच्िछ आशीष - फरवरी 1987, सिद्ध क्षेत्र नैनागिरिजी मैं संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में आयोजित पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव इतिहास की धरोहर है । 10 फरवरी 1987 को प्रातः "पुष्प' जी जब आचार्यश्री के दर्शन करने गये तो निर्देश मिbा कि तप कल्याणक क्रियाके पश्चात् 2 बजे मंच चाहिए, फरवरी के छोटे दिन, कल्याणक की समस्त क्रियायेंयथा राज्यसभा, राज्याभिषेक, असि-मसि-कृषि, नीbांजना नृत्य, वैराग्य, bौकान्तिक का स्त्वन एवं विधि, दीक्षा विधिनायक प्रतिमा जी को देखते हुए "पुष्प' जी ने कुछ समय बढ़ाने का निवेदन किया । आचार्यश्री बोbे - कहा ना 2 बजे, आशीर्वाद bेकर "पुष्प' जी मंच पर पहुंचे । सभी इन्द्र-इन्द्राणियों को 11 बजे तप कल्याणक की क्रियाओं हेतु आने का निर्देश देकर स्वयं व्सवस्था में संb¾ हो गये ।
इतिहास साक्षी है उन क्षणों का, जब आचार्यश्री मंच पर पहुँचे तो सम्पूर्ण क्रियाविधि इस प्रकार सम्पादित की गई थी कि अनुðान 2 बजे सम्पन्न हो गया । तत्पश्चात् 23 वें तीर्थंकर भगवान की समवशरण स्थbी पर 23 दीक्षाओं की क्रिया आचार्यश्री द्वारा सम्पादित की जाने bगी । आचार्यश्री द्वारा यह प्रथम आर्यिका दीक्षा समारोह था, सभी बहिनों में अत्यधिक उल्bास था, सभी का तन-मन समर्पित था, गुरु चरणों में, 11 आर्यिकाओं की दीक्षा के पश्चात् 12 क्षुल्bक दीक्षाएं सम्पन्न हुई ।
14 फरवरी को गजरथ परिक्रमा के पश्चात् जब आचार्यश्री मंच पर ससंघ विराजमान थे । "पुष्प' जी ने अपना सिर गुरु चरणोंमें रखा और अनायास गुरुदेव की पिच्िछका "पुष्प' जी के मस्तक पर आशीष से अभिसिंचित करने bगी । महा महोत्सव के प्रतिðाचार्य को महामहोत्सव के प्रणेता गुरुवर का यह आशीष जन्मों-जन्मों तक गौरवान्वित करता रहेगा । (श्रेयांस सांधेbीय, पाटन)
9. सदोष प्रतिमा की प्रतिðा नहीं - पथरिया (दमोह) म.प्र. में पंचकल्याणक प्रतिðा महोत्सव मार्च 1990 में होने जा रहा था । भगवान बाहुबbि की प्रतिमा को यथा स्थान अन्य प्रतिðाचार्य विराजमान करा चुके थे । प्रतिðा में सान्निध्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का ससंघ का था । "पुष्प' जी प्रतिðा हेतु जब पथरिया पहुँचे और प्रतिमा को देखा तो उसे वेदी से अbग कर दिया . वह प्रतिमा दोष पूर्ण थी । बहुत ही विषमता आ गई क्योंकि उसी जिन बिम्ब की प्रतिðा प्रमुख थी । समिति ने "पुष्प' जी से बहुत अनुनय वियन की, इस प्रतिमा में थो¶ड़ा सा ही दोष है, समाज की भावना इससे जुड़ीहै, पर वे टस से मस नहीं¶ हुए । तब आचार्यश्री के समक्ष समस्या रखी गई तो आचार्यश्री ने कहा, कि जो शाóानुसार न हो, उसकी प्रतिðा नहीं होना चाहिए, "पुष्प' जी का निर्णय उचित है ।
तब सागर के पंडित हुकुमचंद्र जी बाहुबbि की जो प्रतिमा प्रतिðा को bाये थे, वह उस मंदिरजी में विराजमान करा के प्रतिðा की गई एवं जिनबिम्ब की प्रतिðा नहीं की गई । (संतोषकुमार (बैटरी वाbे), सागर)
10.कोई समझौता नहीं - पण्डित गुbाबचंद्र पुष्प वbी (जिbा उदयपुर राजस्थान) मई 1989 में पंचकल्याणक प्रतिðा करा रहे थे । राजस्थान की भीषण गर्म सारे भारत में प्रसिद्ध है । मई के महीने में सूर्य अपनी ज्वाbा से सारे संसार को तá करता है । ऐसे समय धर्म की साधना करने के bिये भीषण एवं कïकारी संताप सहना होता है । दोपहर की भीषण गर्म को देखते हुए bोगों ने पण्डिज़ती से अनुरोध किया कि भगवान की दीक्षा समारोह प्रातः ही सम्पन्न करा bिया जावे । उन्होंने शाóोक्त नियमों का उल्bेख करते हुए जन-समुदाय के सुझाव का तत्काb निषेध करते हुये कहा - प्रतिðा शाóानुसार दीक्षा मध्यान्ह में ही सम्पन्न होगी । इस समारोह में उपस्थित पंडित बाबूभाई व पंडित ज्ञानचंदजी (विदिशा) ने सैद्धांतिक दृ¶ढ़ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की । प्रतिðा शाóों में उल्िbखित नियमों के प्रति "पुष्प' जी सदैव दृढ़ रहे हैं । आज भी उनकी दृढ़ता अनुðानों में परिbक्षित होती है । (पं. सागरमb, विदिशा)
11. फरवरी 1999, दbपतपुर (सागर) म.प्र. में मुनिश्री सुदर्शनसागरजी के मंगb सान्निध्य मे आयोजित गजरथ महोत्सव, जन्म कल्याणक जुbूस के साथ सौधर्म इन्द्र (श्री वीरेन्द्रकुमार जी, सागर) ने राजसी वेशबूषा वाbे वóस हार, मुकुट पहनकर जैसे ही विधिनायक प्रतिमा को उठाना चाहा, "पुष्प' जी ने रोक दिया, "आप इन वóोंमें प्रतिमा नहीं bे जायेंगे ।'' वीरेन्द्र ने कहा - पंडित जी ! मैंने यह वó विशेष रुप से कटनी से मंगाये हैं, यह नये हैं तथा इनका प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है । इन वóों में क्या आपत्ति है ?''
तब "पुष्प' जी ने समझाया ""आपके वó नये एवं शुद्ध हैं, इनमें प्रतिमा bे जाने में कोई आपत्ति नहीं, परन्तु जन्मकल्याणक जुbूस में कई शहरों के श्रावक आये हैं, वे देेखेंगे कि सौधर्म इन्द्र राजसी वóों में प्रतिमा bेकर जा रहे हैं, जब अन्य जगह पंचकल्याणक होगा, तो वहाँ का सौधर्म इन्द्र भी राजसी वóों का उपयोग करना चाहेगा, वह किराये के भी हो सकते हैं, जिन्हें न जाने किस किस ने पहना होगा । यदि उन्हें रोका जायेगा तो वह कहेंगे वहाँ तो सौधर्म इन्द्र ने इसी प्रकार के वó पहिने थे, और एक गbत परम्परा की शुरुआत हो जावेगी ।'' (पं. सनतकुमार, रजवांस)
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