कर्मयोगी चिन्तक मनीषी ः पं. पुष्‌प जी

पंं. गुbाबचंद्र पुष्‌प सƒे देव-शाó-गुरु के उपासक और सम्यक्‌ रत्नत्रय के आराधक मनीषी विद्वान रहे । सादा जीवन उƒ विचार के सशक्त हस्ताक्षर, काbजयी प्रतिðाचार्य माँ जिनवाणी के आराधक, सिद्धांत मर्मज्ञ, आशुमति रहे जो जन-न के श्रद्धास्पद रहे । bगभग 4 दशकों से उनका सान्निध्य प्राá होता रहा है । जब-जब भी मिbा तब-तब इस उदभट मनीषी से कुछ न कुछ हस्त मस्त हुआ । जिसने जीवन निर्माण में महती भूमिका अदा की है । 17 अगस्त 2014 से 19 अगस्त 2014 तक टीकमग¶ढ़ में उनके साथ रहने का अंतिम अवसर मिbा । 90 वसन्त पार कर बहु आयामी व्‌यक्तित्व के धनी पं. "पुष्‌प' जी की दिनचर्या में कहीं भी शिथिbता नहीं । इस उम्र में भी स्वाध्याय के प्रति bbक देखकर अभिभूत हो गया । माँ जिनवाणी के इस साधक के पुस्तकाbय में bगभग पाँच हजार ग्रंथ संग्रहित । सभी में आवरण चढ़े तथा पाbीथिन के पैकेट में सुरक्षित रख कर करीने से सजे । 17 अगस्त की शाम जब मैंने उनके कक्ष (स्वाध्याय कक्ष) में प्रवेश किया तब वे एक ग्रंथ में कव्‌हर च¶ढ़ा रहे थे । चरण-वंदन कर समीप बैठ गया । इसी बीच बाहर से कुछ जिज्ञासु आ गए । उन्होंने उनकी जिज्ञासा के समाधान निकbवाकर दिखाये । ग्रन्थाbय में वांछित ग्रंथ कहां पर रखा है पूर्ण स्मरण के साथ निकbवाया । उनकी कार्यप्रणाbी सचमुच वंदनीय अभिनंदनीय । 18 अगस्त को सदैव की भांति 4 बजे सुबह bाइट जb गई । नियमित पढ़े जाने वाbे पाठ और स्तोत्रों का वाचन उसके बाद सामायिक पूर्ण कर कुछ स्वाध्याय कर दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर अपने हाथ से स्नान के bिए पानी गरम किया । अपने वóोंको स्वयं धोया और तैयार हो गए जिनाbय के bिए । श्री दि. जैन आदिनाथ जिनाbय (नया मंदिर) टीकमगढ़ में श्री हुकमचंद bार वाbों की ओर से सिद्धचक्र मंडb विधान का आयोजन जय निशांत के आचार्यत्व मेंहो रहा था । उसमें सम्मिbित हुए । पं. "पुष्‌प' जी से आयोजक ने वाणी से हमें कृतार्थ करें । इसी बीच मुनिद्वय का आगमन हुआ । उनकी मंगb आशीष के पूर्व पंडितजी साहब ने अपनी अमृतमयी ओजस्वनी वाणी से श्री सिद्धचक्र के महत्व की विवेचना करते हुए विधान के वैशिï पर पर्याá प्रकाश डाbा । उम्र के इस पड़ाव पर भी उनकी वाणी में वही मधुरता, वही गम्भीर! सिद्धांत मर्मज्ञ को सुनकर सभी आल्‌हादित हो गए । मुनिद्वय के मंगb प्रवचन के बाद पंडित जी सा. ने प्रथम दिवस की पूजा सम्पन्न कराई तब तक 11.30 बज चुके थे । आयोजक के गृह निवास पर पंडितत्व वर्ग के एवं विशिï जनों के भोजन की व्‌यवस्था थी । मुझे भी पंडित जी के साथ भोजन हेतु जाना पड़ा । भोजन निर्माण करने वाbी बहिनें पंडितजी की रीति-नीति से परिचित थी । दिवस था अïमी का अतःभोजन में हरी का निषेध था । अतः न सब्‌जी और न फb के भोजन में । पंडितजी समेत सभी विद्वतजनोने रोटी कड़ी (नीं¶बz से निर्मित) बूंदी-सेव (नमकीन) एवं दूध-चांवb मात्र ही ग्रहण किया । पंडितजी सा. का अïमी-चतुर्दशी को हरी का त्याग रहता है । भोजनोपरांत अपने निवास पर bौटकर (उन्होंने सामायिक की) । सामायिक से निवृत्त हुए थे कि समीपस्थ ग्राम मडावरा (उ.प्र.) के श्रावकगण पधारे और पंडित जी सा. से नवीन मंदिर निर्माण के bिए मार्गदर्शन bिया । सभी मडावरा निवासियों के bगातार निवेदन करने के बाद भी पंडित जी सा. उनके साथ मंदिर स्थb देखने महज इसbिए नहीं गए कि वे अपने मन माफिक कुछ संशोधन चाहते थे मंदिर निर्माण में । पंडित जी सा. आगम वर्णित मानकों से समझौता के पक्षधर नहीं थे । धन्य है आगमनिð की दृ¶ढ़ता ।

पं. गुbाबचंद्र जी पुष्‌प ः अनुशासित दिनचर्या

पंडित गुbाबचंद्र "पुष्‌प" जी की दिनचर्या नियमित एवं व्‌यवस्थित है, विपरीत परिस्थितियोंमें भी वह इसका अनुपाbन करते हैं । यह इनकी दिनचर्या में समाहित है । 13-14 अगस्त 1999 को सिद्धक्षेत्र द्रोणागिरि में दो दिवसीय, बुंदेbखण्ड के जैन तीर्थ उनकी वास्तुकbा एवं वास्तुविद्या विद्वत संगोðी का आयोजन था । 14 अगस्त को प्रातः 4 बजे पंडित जी सा. उठ गये और सामायिक पर बैठ गये । इसी बीच bाइट चbी गई । सामायिक के बाद पंडितजी ने अपनी टार्च निकाbी और धर्म ध्यान दीपक पुस्तक निकाbकर, नित्य पढ़े जाने वाbे स्तोत्रों का पाठ टार्च की रोशनी में प्रारंभ हो गया । मैं यह देखकर दंग रह गया । समय के एक-एक पb की कीमत किस तरह करते हैं "पुष्‌प" जी । विषम परिस्थितियों में भी पण्डितजी प्रतिकूbता को अनुकूbता मेंबदb देते हैं । मेरी तनया कु. चंदना सांधेbीय मस्तिष्‌क ज्‌वर से पीड़ित हो अपने जीवन से संघर्ष कर रही थी । "पुष्‌प" जी को विदित हुआ, वे उसे देखने आये । हाb-चाb जाने इसी बीच दिन अस्त हो गया । समय की नजाकत को देखते हुए पण्डितजी साहब वहीं हास्पिटb में अपनी सामायिक को एक बैंच पर ही बैठ गए । परिस्थितियां चाहे जैसी हो पर श्रावक के षट्‌ आवश्यक काया~ में कभी कोई शिथिbता नहीं । धन्य है आपकी निðा और चर्या । "पुष्‌प" जी निराbे ः निराbे साथी मेरे स्वर्गय पिताश्री सिंघई हुकमचंद साधेbीय से पंडितजी का सम्पर्क बहुत पुराना है । और यह सम्पर्क 1978 मेंऔर अधिक आत्मीयता में परिणित हो गया जब आपके तृतीय पुत्र श्री राजकुमार जी का पाणिग्रण संस्कार मेरी अनुजा समता के साथ 26 मई 1978 को हुआ । 27 मई की सुबह जब कार्यकर्ता बारातियोंको नाश्ता कराने जनवासा पहुँचे तो वहाँ कोई बाराती नाश्ता करने के bिए तैयार नहीं । कुछ ने कहा मंदिर से bौटकर नाश्ता होगा । अधिकांश बाराती समीपस्थ अतिशय क्षेत्र कोनीजी के दर्शन के बाद नाश्ता करने की बात कहकर मंदिरजी के निकb पड़े । विद्वान पंडित जी के बाराती भी नियम-संयम वाbे थे, ऐसे बाराती बहुत कम देखने मेंआते हैं ।

पुष्‌प जी संतों की दृïि में

वपरीत परिस्थितियों में भी सहज रहकर कार्य करना "पुष्‌प' जी की विशेषता है । गुरुओं की सेवा में विनत "पुष्‌प' जी रत्नत्रय प्राá कर अपना आत्म कल्‌याण करें । - मुनिश्री क्षमासागरजी "पुष्‌प' जी ने शताधिक प्रतिðाओं के अनुभव को प्रतिðा रत्नाकर के माध्यम से उपbब्‌ध करके निःस्पृहता का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो अनुकरणीय है ।- मुनिश्री सुधासागरजी "पुष्‌प' जी बुन्देbखण्ड के प्रतिðाचार्य है, वह किसी प्रकार के शिथिbता स्वीकार नहीं करते हैं, उनकी विशुद्ध कार्यशैbी ही उनके आयोजनोंकी सफbता का कारण है । - मुनिश्री समतासागरजी आगम, सिद्धांत एवं विज्ञान का सामंजस्य "पुष्‌प' जी की प्रतिðा में देखने को मिbता है । आगम विरुद्ध प्रदर्शन के वह सख्‌त विरोधी है । - मुनिश्री प्रमाणसागरजी "पुष्‌प' जी प्रतिðाचाया~ के bिए आदर्श है, उनकी सामंजस्य पूर्ण सैद्धांतिक कार्यशैbी के कारण सभी प्रतिðाचार्य उनका साथ पाने को सौभाग्य मानते हैं । - मुनिश्री तरुणसागरजी

पुष्‌प जी विद्वानों की दृïि में

"पुष्‌प' जी प्रत्येक क्रिया को स्वयं सम्पन्न करते हैं तथा सूक्ष्मता से अवbोकन करते हैं । आपकी कार्यशैbी निर्विवाद पूर्वा पर शाóों में सामंजस्य सहित अनुशासित रहती है । पं. "पुष्‌प' जी मेेरे शिक्षा गुरु ही नहीं, मेरे धर्म पिता भी हैं, उनका अभिनंदन हमारा कत्र्तव्‌य ही नहीं, अधिकार भी है, जिसका निर्वाह हमें करना चाहिए - मां श्री कौशb, ऋषभांचb गौरव का विषय है कि भारत देश में स्वतंत्रता प्राáि के उपरांत आप ही एकमात्र ऐसे प्रतिðाचार्य हैं, जिन्होंने शताधिक प्रतिðा सम्पन्न करायी है । प्रतिðा विधि पूर्वक सम्पन्न कराने का कार्य अपने आप में महत्वपूर्ण होता है, और उसे सम्पन्न कराने वाbा भी । इस नाते आपको इस युग का धर्मपुरुष कहा जा सकता है ।- डॉ. (पं.) पन्नाbाbजी साहित्याचार्य, सागर वे निश्चित ही एक सिद्धहस्त, कुशb, प्रभावक और निराडम्बरी प्रतिðाचार्य है जिनकी वाग्मिता और उदारता ने सभी को अभिभूत कर दिया है । इतना ही नहीं, "पुष्‌प' जी एक अच्‌छे bेखक व कवि भी है । - प्रो. डॉ. भागचंद्र भास्कर, नागपुर पं. गुbाबचंद्र 'पुष्‌प' का नाम उन विद्वानों की सूची में अग्रगण्य है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन आर्ष-परम्परा से प्राá जिनवाणी माँ की आराधना और उसके सर्वांगणीय विकास में समर्पित कर दिया है - डॉ. सुदर्शनbाb, वाराणसी

आगम निðा ः संयम और चरित्र के धनी ः पं. गुbाबचंद्र "पुष्‌प'

"पाषाण को पूज्‌यता प्रदान कराने की कbा मेंनिष्‌णात पं. गुbाबचंद्र "पुष्‌प' जी बहुमुँखी प्रतिभा के धनी रहे, आपका दृढ़ निश्चय एवं आत्म विश्वास आपके संयमित जीवन का द्योतक है । आगम निðा, संयमी और चारित्र के धनी "पुष्‌प' जी सद्‌ ग्रहस्थ ही नहीं सद्‌श्रावकरत्न भी रहे । मानव जीवन को सार्थक करना और कराना संत पुरुषों का कत्र्तव्‌य है । साधना पथ पर सभी नहीं चb पाते, साधना का उपदेश देना और उस पर चbना यह सार्थक किया "पुष्‌प' जी ने । आपने अपने जीवन में धर्म को साधना मानकर जीवन की वास्तविकता को समझा और अपनी चर्या को अनुशासित किया । समय का सही सदुपयोग कर संयम पथ पर ब¶ढ़ते चbे गये और मंजिb तक पहुँच ही गये । "पुष्‌प' जी के जीवन के कुछ विशिïताओं और उनकी आगम निðा के कुछ अनछुये पहbू रोचक प्रसंग प्रस्तुत हैं - "पुष्‌प' जी की स्वानुभूति - 1. मां के संस्कार - ग्रामीण अनिश्चित दिनचर्या के कारण मेरा मंदिर जाने का समय भी निश्चित नहीं था । माँ का अनुशासन जिनाbय के प्रति अत्यधिक कठोर था । देवदर्शन के बिना भोजन भी नहीं मिbता थ । यही नहीं, पूरी सतर्कता रखी जाती थी, यथा मंदिर में कौन-कौन था ? मंदिर के द्वारा खुbे थे या बन्द ? परिक्रमा कितनी bगाई थी ? चन्दन bगाकर नहीं आये ? चावb कैसे चढ़ाये थे ? नमस्कार कैसे किया था ? आदि पूछा जाता था । तब भोजन मिbता था । माँ के द्वारा मेरे जीवन में रौपे गये वे संस्कार आज पुष्‌िपत और फbित हो रहे हैं। आज माँ के वे प्रश्न जब भी याद आते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा से माथा झुक जाता है । यदि माँ सतर्क होकर इस पृथ्वी के संस्कारों का आरोपण नहीं करती, तो हमारा जीवन भी पापाचरण में bिá होता । मैं भी किसी व्‌यवसाय में bगा संसार ब¶ढ़ाने का कार्य कर रहा होता । 2. पाप का दाग - बचपन चंचb होता ही है, या कहें चंचbता ही बचपन है । चाहे वह किसी का हो । उसी बचपन का एक प्रेरक प्रसंग मुझे आज भी याद है । एक बार ठण्ड के दिनों में एक किसान घी bेकर आया । माँ ने पूछा- तपे दूध का ही है, कƒे दूध का तो नहीं । किसान ने मुझे घी चखने को दिया । चखते ही चेहरे पर स्वादिïता झbकने bगी । इतने में मझbे भैया जगत भी आ गये । उनके मन में भी घी चखने के भाव आये । जैसे ही किसान घी रख कर बाहर गया, उन्होंने चुपचाप घी निकाbा । इतने में किसी के आने की आहट हुई । अब क्‌या करें ? चोरी पकड़ी न जाये, इसीbिये घी जेब में रख bिया । माँ ने आते ही काम बता दिया । वे मन मारकर काम करने bगे । इतनी देर में घी गरमाहट पाकर कुर्ते की जेब से टपकने bगा । राधा बहिन ने माँ को संकेत किया । माँ ने सहजता में मझbे को बुbाया और कहा - बेटा ! पाप कितना भी छिपाओ, वह प्रकट हो ही जाता है । जिस तरह यह कुुर्ता खराब हुआ, उसी तरह पाप जीवन को भी दाग दे जाता है, जिसे मिटाने के bिये कई जीवन bग जाया करते हैं । माँ की यह सीख मुझे आज भी याद है । जब भी मन, पाप, कषाय की ओर जाता है, तो माँ के वेशब्‌द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं ।पाप का दाग जीवन रुपी चादर खराब कर देता है और पाप प्रवृत्ति पर अंकुश bग जाता है । श्रद्धा का चमत्कार - ककरवाहा प्रवास मेंआपके ज्‌येð पुत्र शिखरचंद्र को बड़ी चेचक निकbी, चेचक के प्रकोप से अत्यंत पीड़ा का अनुभव हुआ । पुत्र की दोनों आँखें चिपक गई और पैर भी घुटने के पास चिपकने bगे, चbना-फिरना बंद हो गया । भोजन अल्‌प रह गया । माँ को अत्याधिक चिन्ता एवं आशंका हुई । पड़ौस में¶ रहने वाbे अजैन परिवारों ने शीतbामाता पर जb च¶ढ़ा देने या चढ़ावा देने की सbाह दी । जिसके चरणामृत सपुत्र का रोग ठीक होने का आश्वासन दिया । पुत्र व्‌यामोह क्‌या नहीं करवाता ? अतः माँ ने प्रातः शीतbा माता को जb चढ़वाने की व्‌यवस्था कर bी । किन्तु रात्रि में "पुष्‌प' जी को पता चbा तो उन्होंने माँ से आत्मविश्वास से साफ कहा "मेरा b¶ड़का कb मरता था सो आज मर जाये bेकिन मैं किसी देवी की पूजा करने नहीं दूंगा ।'' बाद में शांत चित्त होकर समझाया कि हमारी जिनेन्द्र देव के प्रति आस्था और श्रद्धा नहीं छूटना चाहिए । तुम कb से ही मंदिर जी से गन्धोदक bाकर bगाना, पुत्र ठीक हो जायेगा । "" माँ ने श्रद्धापूर्वक गन्धोदक bगाना शुरु किया । 7 दिन के अन्दर ही बेटे की आँखें खुb गई और पैर ठीक हो गये । पुत्र को स्वास्थ्य bाभ हो गया । "पुष्‌प' जी की जिन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से मन भाव विभोर हो उठता है। (श्रीमती रामबाई धर्मपत्नी पं. पुष्‌प जी ककरवाहा /टीकमगढ़) 4. पर पीड़ा की कसक - पण्डित "पुष्‌प' जी के जीवन में कत्र्तव्‌य की सुगंध हमेशा से महती रही है और उस सुगंध से आस-पास का वातावरण सुवासित होता रहा । एक बार विधान कारकर bौटते समय बड़ा गांव से ककरवाहा जाने की बस नहीं¶ मिbी । यातायात के अन्य साधन उपbब्‌ध न होने की स्थिति में उन्हें ककरवाहा पैदb ही जाना प¶ड़ा। पहुँचते-पहुँचते रात्रि के 11 बज गये । उसी रात 2 बजे किसी ने द्वारा खटखटाया ।श्रीमती रामबाज्ञ ने आहट सुनी । पूछा - कौन है ? रुआंसी आवाज सुनाई दी - वैदन बैन , मैं bखेरन हूँ । मोरो पेट पिराओ है (दर्द हो रहा है) मछरिया सी तbफ रई हूँ । हम अबै नई आदते पै तकbीफ मौत हो रई है, तनक पण्डित जी को दिखाने है ।'' पण्डितजी की थकान के बारे में विचारकर रामबाई ने कहा, अबई सोये हैं, सबेरे दिखाईयो ।'' सहधर्मिणी के मना करने पर वह चbी गई । पर पण्डितजी की कत्र्तव्‌य एवं करुणा भावना ने उन्हें रुकने नहीं दिया । तुरन्त दवा का थैbा bेकर उसके घर जाकर एक-डेढ़ घंटे चिकित्सा की । 4 बजे वापिस आकर सामायिक में बैठने bगेे, तो श्रीमती ने कहा - एकाध घण्टा bेट bो । इतनी देर से आये थे, सो भी नहीं पाये । पण्डितजी ने सहजता से समझाया, कोई दुख में ही किसी के घर जाता है । जरा सोचो । यदि मैं घर में नहीं रहूँ और अपने घर में किसी को पी¶ड़ा हो जाये, तो क्‌या करोगी ? मेरा धर्म है कि किसी भी व्‌यक्ति के दर्द में उसका उपचार करुँ । पण्डितजी ने वैद्यकीय सेवा को कभी व्‌यवसायिकता से नहीं जो¶ड़ा । जिनवाणी सेवा के साथ-साथ वे जनसेवा को भी समाज रुप से फbीभूत करते रहे । जहाँ एक ओर उन्होंने अज्ञान में भटके bोगों को धर्म रास्ता बताया, वहीं दूसरी ओर दर्द और तकbीफ से घिरे bोगों की चिकित्सा कर उनके आँसू पोंछे । (पं. पूर्णचंद्र "सुमन' दुर्ग) 5. कड़वा सत्य सीख दे गया - पिता पण्डित मन्नूbाbजी के स्वर्गवास के पश्चात्‌ "पुष्‌प' जी ने कपड़े के व्‌यवसाय को मुख्‌यता दी । bैकिन वैद्य बब्‌बा (पं. मन्नूbाb) के कारण रोगी भी आते रहे । "पुष्‌प' जी जो कुछ भी जानते थे उसके अनुसार दवा दे देते थे । नई दवा बनी नहीं अतः धीरे-धीरे धीरे दवा समाá हो गई । निश्चित होकर कपड़े का काम करने bगे । एक दिन दरबारीbाbजी (भैयन) इकbौता बेटा अस्वस्थ हो गया । श्रावण मास मूसbाधार बारिश से नदी, नाbे उफान पर थे । आवागमन के साधन अवरुद्ध थे । कहाँ जाये ? क्‌या करें ? कोई सहारा न देख "पुष्‌प' जी के पास पहुँचे । दीन स्वर में निवेदन किया, भैया bड़का बीमार है एक बार चb कर देेख bो । "पुष्‌प' जी ने कहा - मैं उसका निदान नहीं कर सकुंगा । मैं उस बारे में जानता ही नहीं हूँ। भैयन ने बुझे मन से कहा, बƒा मरे या बचे, उसका भाग्य । यदि हमारी बात बुरी न bगे तो कहूँ "जब तक बब्‌बा थे सबको समाधान मिbता था, अब तुम्हारे द्वार पर कौन आयेगा ? इन शब्‌दों ने "पुष्‌प' जी के अन्तर्मन को झकझोर दिया । कड़वा सत्य öदयंग होते ही नई सीख दे गया । उस दिन का संकल्‌प कार्यक्रम मेंपरिणित करने के bिए आयुर्वेेदिक परीक्षा रीवा से, होम्योपैथिक, नागपुर से, इंजेक्‌शन ट­ेनिंग, झांसी से करके, प्रसिद्ध चिकित्सक के रुप में स्थापित हुए । कपड़े का व्‌यवसाय बन्द करके 20 वर्ष सफb चिकित्सा करके आजीविकोपार्जन करते हुए जन सेवा की (ब्र. बाबूbाb जैन, ककरवाहा, बण्डा) पाषाण को पूज्‌यता प्रदान कराने की कbा मेंनिष्‌णात पं. गुbाबचंद्र "पुष्‌प' जी बहुमुँखी प्रतिभा के धनी रहे, आपका दृढ़ निश्चय एवं आत्म विश्वास आपके संयमित जीवन का द्योतक है । आगम निðा, संयमी और चारित्र के धनी "पुष्‌प' जी सद्‌ ग्रहस्थ ही नहीं सद्‌श्रावकरत्न भी रहे । मानव जीवन को सार्थक करना और कराना संत पुरुषों का कत्र्तव्‌य है । साधना पथ पर सभी नहीं चb पाते, साधना का उपदेश देना और उस पर चbना यह सार्थक किया "पुष्‌प' जी ने । आपने अपने जीवन में धर्म को साधना मानकर जीवन की वास्तविकता को समझा और अपनी चर्या को अनुशासित किया । समय का सही सदुपयोग कर संयम पथ पर ब¶ढ़ते चbे गये और मंजिb तक पहुँच ही गये । "पुष्‌प' जी के जीवन के कुछ विशिïताओं और उनकी आगम निðा के कुछ अनछुये पहbू रोचक प्रसंग प्रस्तुत हैं - "पुष्‌प' जी की स्वानुभूति - 1. मां के संस्कार - ग्रामीण अनिश्चित दिनचर्या के कारण मेरा मंदिर जाने का समय भी निश्चित नहीं था । माँ का अनुशासन जिनाbय के प्रति अत्यधिक कठोर था । देवदर्शन के बिना भोजन भी नहीं मिbता थ । यही नहीं, पूरी सतर्कता रखी जाती थी, यथा मंदिर में कौन-कौन था ? मंदिर के द्वारा खुbे थे या बन्द ? परिक्रमा कितनी bगाई थी ? चन्दन bगाकर नहीं आये ? चावb कैसे चढ़ाये थे ? नमस्कार कैसे किया था ? आदि पूछा जाता था । तब भोजन मिbता था । माँ के द्वारा मेरे जीवन में रौपे गये वे संस्कार आज पुष्‌िपत और फbित हो रहे हैं। आज माँ के वे प्रश्न जब भी याद आते हैं तो उनके प्रति श्रद्धा से माथा झुक जाता है । यदि माँ सतर्क होकर इस पृथ्वी के संस्कारों का आरोपण नहीं करती, तो हमारा जीवन भी पापाचरण में bिá होता । मैं भी किसी व्‌यवसाय में bगा संसार ब¶ढ़ाने का कार्य कर रहा होता । 2. पाप का दाग - बचपन चंचb होता ही है, या कहें चंचbता ही बचपन है । चाहे वह किसी का हो । उसी बचपन का एक प्रेरक प्रसंग मुझे आज भी याद है । एक बार ठण्ड के दिनों में एक किसान घी bेकर आया । माँ ने पूछा- तपे दूध का ही है, कƒे दूध का तो नहीं । किसान ने मुझे घी चखने को दिया । चखते ही चेहरे पर स्वादिïता झbकने bगी । इतने में मझbे भैया जगत भी आ गये । उनके मन में भी घी चखने के भाव आये । जैसे ही किसान घी रख कर बाहर गया, उन्होंने चुपचाप घी निकाbा । इतने में किसी के आने की आहट हुई । अब क्‌या करें ? चोरी पकड़ी न जाये, इसीbिये घी जेब में रख bिया । माँ ने आते ही काम बता दिया । वे मन मारकर काम करने bगे । इतनी देर में घी गरमाहट पाकर कुर्ते की जेब से टपकने bगा । राधा बहिन ने माँ को संकेत किया । माँ ने सहजता में मझbे को बुbाया और कहा - बेटा ! पाप कितना भी छिपाओ, वह प्रकट हो ही जाता है । जिस तरह यह कुुर्ता खराब हुआ, उसी तरह पाप जीवन को भी दाग दे जाता है, जिसे मिटाने के bिये कई जीवन bग जाया करते हैं । माँ की यह सीख मुझे आज भी याद है । जब भी मन, पाप, कषाय की ओर जाता है, तो माँ के वेशब्‌द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं ।पाप का दाग जीवन रुपी चादर खराब कर देता है और पाप प्रवृत्ति पर अंकुश bग जाता है । श्रद्धा का चमत्कार - ककरवाहा प्रवास मेंआपके ज्‌येð पुत्र शिखरचंद्र को बड़ी चेचक निकbी, चेचक के प्रकोप से अत्यंत पीड़ा का अनुभव हुआ । पुत्र की दोनों आँखें चिपक गई और पैर भी घुटने के पास चिपकने bगे, चbना-फिरना बंद हो गया । भोजन अल्‌प रह गया । माँ को अत्याधिक चिन्ता एवं आशंका हुई । पड़ौस में¶ रहने वाbे अजैन परिवारों ने शीतbामाता पर जb च¶ढ़ा देने या चढ़ावा देने की सbाह दी । जिसके चरणामृत से पुत्र का रोग ठीक होने का आश्वासन दिया । पुत्र व्‌यामोह क्‌या नहीं करवाता ? अतः माँ ने प्रातः शीतbा माता को जb चढ़वाने की व्‌यवस्था कर bी । किन्तु रात्रि में "पुष्‌प' जी को पता चbा तो उन्होंने माँ से आत्मविश्वास से साफ कहा "मेरा b¶ड़का कb मरता था सो आज मर जाये bेकिन मैं किसी देवी की पूजा करने नहीं दूंगा ।'' बाद में शांत चित्त होकर समझाया कि हमारी जिनेन्द्र देव के प्रति आस्था और श्रद्धा नहीं छूटना चाहिए । तुम कb से ही मंदिर जी से गन्धोदक bाकर bगाना, पुत्र ठीक हो जायेगा । "" माँ ने श्रद्धापूर्वक गन्धोदक bगाना शुरु किया । 7 दिन के अन्दर ही बेटे की आँखें खुb गई और पैर ठीक हो गये । पुत्र को स्वास्थ्य bाभ हो गया । "पुष्‌प' जी की जिन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से मन भाव विभोर हो उठता है। (श्रीमती रामबाई धर्मपत्नी पं. पुष्‌प जी ककरवाहा /टीकमगढ़) 4. पर पीड़ा की कसक - पण्डित "पुष्‌प' जी के जीवन में कत्र्तव्‌य की सुगंध हमेशा से महती रही है और उस सुगंध से आस-पास का वातावरण सुवासित होता रहा । एक बार विधान कारकर bौटते समय बड़ा गांव से ककरवाहा जाने की बस नहीं¶ मिbी । यातायात के अन्य साधन उपbब्‌ध न होने की स्थिति में उन्हें ककरवाहा पैदb ही जाना प¶ड़ा। पहुँचते-पहुँचते रात्रि के 11 बज गये । उसी रात 2 बजे किसी ने द्वारा खटखटाया ।श्रीमती रामबाज्ञ ने आहट सुनी । पूछा - कौन है ? रुआंसी आवाज सुनाई दी - वैदन बैन , मैं bखेरन हूँ । मोरो पेट पिराओ है (दर्द हो रहा है) मछरिया सी तbफ रई हूँ । हम अबै नई आदते पै तकbीफ मौत हो रई है, तनक पण्डित जी को दिखाने है ।'' पण्डितजी की थकान के बारे में विचारकर रामबाई ने कहा, अबई सोये हैं, सबेरे दिखाईयो ।'' सहधर्मिणी के मना करने पर वह चbी गई । पर पण्डितजी की कत्र्तव्‌य एवं करुणा भावना ने उन्हें रुकने नहीं दिया । तुरन्त दवा का थैbा bेकर उसके घर जाकर एक-डेढ़ घंटे चिकित्सा की । 4 बजे वापिस आकर सामायिक में बैठने bगेे, तो श्रीमती ने कहा - एकाध घण्टा bेट bो । इतनी देर से आये थे, सो भी नहीं पाये । पण्डितजी ने सहजता से समझाया, कोई दुख में ही किसी के घर जाता है । जरा सोचो । यदि मैं घर में नहीं रहूँ और अपने घर में किसी को पी¶ड़ा हो जाये, तो क्‌या करोगी ? मेरा धर्म है कि किसी भी व्‌यक्ति के दर्द में उसका उपचार करुँ । पण्डितजी ने वैद्यकीय सेवा को कभी व्‌यवसायिकता से नहीं जो¶ड़ा । जिनवाणी सेवा के साथ-साथ वे जनसेवा को भी समाज रुप से फbीभूत करते रहे । जहाँ एक ओर उन्होंने अज्ञान में भटके bोगों को धर्म रास्ता बताया, वहीं दूसरी ओर दर्द और तकbीफ से घिरे bोगों की चिकित्सा कर उनके आँसू पोंछे । (पं. पूर्णचंद्र "सुमन' दुर्ग) 5. कड़वा सत्य सीख दे गया - पिता पण्डित मन्नूbाbजी के स्वर्गवास के पश्चात्‌ "पुष्‌प' जी ने कपड़े के व्‌यवसाय को मुख्‌यता दी । bैकिन वैद्य बब्‌बा (पं. मन्नूbाb) के कारण रोगी भी आते रहे । "पुष्‌प' जी जो कुछ भी जानते थे उसके अनुसार दवा दे देते थे । नई दवा बनी नहीं अतः धीरे-धीरे धीरे दवा समाá हो गई । निश्चित होकर कपड़े का काम करने bगे । एक दिन दरबारीbाbजी (भैयन) इकbौता बेटा अस्वस्थ हो गया । श्रावण मास मूसbाधार बारिश से नदी, नाbे उफान पर थे । आवागमन के साधन अवरुद्ध थे । कहाँ जाये ? क्‌या करें ? कोई सहारा न देख "पुष्‌प' जी के पास पहुँचे । दीन स्वर में निवेदन किया, भैया bड़का बीमार है एक बार चb कर देेख bो । "पुष्‌प' जी ने कहा - मैं उसका निदान नहीं कर सकुंगा । मैं उस बारे में जानता ही नहीं हूँ। भैयन ने बुझे मन से कहा, बƒा मरे या बचे, उसका भाग्य । यदि हमारी बात बुरी न bगे तो कहूँ "जब तक बब्‌बा थे सबको समाधान मिbता था, अब तुम्हारे द्वार पर कौन आयेगा ? इन शब्‌दों ने "पुष्‌प' जी के अन्तर्मन को झकझोर दिया । कड़वा सत्य öदयंग होते ही नई सीख दे गया । उस दिन का संकल्‌प कार्यक्रम मेंपरिणित करने के bिए आयुर्वेेदिक परीक्षा रीवा से, होम्योपैथिक, नागपुर से, इंजेक्‌शन ट­ेनिंग, झांसी से करके, प्रसिद्ध चिकित्सक के रुप में स्थापित हुए । कपड़े का व्‌यवसाय बन्द करके 20 वर्ष सफb चिकित्सा करके आजीविकोपार्जन करते हुए जन सेवा की (ब्र. बाबूbाb जैन, ककरवाहा, बण्डा) 6. निस्पृही प्रतिðाचार्य - पंडित गुbाबचंद्र "पुष्‌प' को बनारस में पंचकल्‌याणक का आमंत्रण मिbा । सभी मुहुर्त निश्चित हो गये थे । एक बैठक में "पुष्‌प' जी ने कहा - मैं शुद्ध आम्नाय से ही प्रतिðा विधि सम्पन्न कराऊँगा । महिbाओं को अभिषेक करने का अवसर नहीं मिbेगा । वहाँ की पंचायत के पदाधिकारी उसे स्वीकार करने में झिझक रहे थे क्‌योंकि वहां महिbा अभिषेक की परम्परा थी । "पुष्‌प' जी ने उसी समय पंचकल्‌याणक कराने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया । फिर उक्त प्रतिðा अन्य किसी विद्वान ने उसी मुहूत्र्त मेें सम्पन्न की । (पं. बाबूbाb फागुल्‌b, बनारस) 7. माच 1978, बीना बारह (देवरी-सागर, म.प्र.) अतिशय क्षेत्र में, सन्त शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में आयोजित पंचकल्‌याणक गजरथ महोत्सव में देश के ख्‌याति प्राá, bब्‌ध प्रतिðित विद्वान पं. जगन्मोहनbाb जी शाóी ने "पुष्‌प' जी को ज्ञान कल्‌याणक के पश्चात्‌ स्वयं पगड़ी बांधकर "संहिता सूरि' उपाधि से अbंकृत किया एवं अपने उद्‌बोधन मेंपण्डितजी ने हर्ष के साथ कहा । ""मैंने कई पंचकल्‌याणक देखे परन्तु यहाँ "पुष्‌प' जी की प्रतिðा विधि एवं क्रियाओं में विशिðता महसूस की । मैंने सूक्ष्म रीति से अप्रकट रुप से सम्पूर्ण क्रिया विधि को देखा, पंचकल्‌याणक में सिद्धांत का समन्वय, एवं शाóोक्त क्रिया विधि के साथ उनका विवेचन पहbी बार देखने को मिbा।'' "पुष्‌प' जी प्रतिðा विधि के निष्‌णात विद्वान है, प्रतिðा की गूढ़ विधि को शाóोक्त जानते हैं,/कराते हैं । अतः उन्हें "संहिता सूरि' की उपाधि से अbंकृत कर सम्पूर्ण विद्वत वर्ग एवं समाज गौरवान्वित हैं । (डॉ. भागचंद्र भागेन्दु, दमोह) मिbा पिच्‌िछ आशीष - फरवरी 1987, सिद्ध क्षेत्र नैनागिरिजी मैं संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में आयोजित पंचकल्‌याणक गजरथ महोत्सव इतिहास की धरोहर है । 10 फरवरी 1987 को प्रातः "पुष्‌प' जी जब आचार्यश्री के दर्शन करने गये तो निर्देश मिbा कि तप कल्‌याणक क्रियाके पश्चात्‌ 2 बजे मंच चाहिए, फरवरी के छोटे दिन, कल्‌याणक की समस्त क्रियायेंयथा राज्‌यसभा, राज्‌याभिषेक, असि-मसि-कृषि, नीbांजना नृत्य, वैराग्य, bौकान्तिक का स्त्वन एवं विधि, दीक्षा विधिनायक प्रतिमा जी को देखते हुए "पुष्‌प' जी ने कुछ समय बढ़ाने का निवेदन किया । आचार्यश्री बोbे - कहा ना 2 बजे, आशीर्वाद bेकर "पुष्‌प' जी मंच पर पहुंचे । सभी इन्द्र-इन्द्राणियों को 11 बजे तप कल्‌याणक की क्रियाओं हेतु आने का निर्देश देकर स्वयं व्‌सवस्था में संb¾ हो गये । इतिहास साक्षी है उन क्षणों का, जब आचार्यश्री मंच पर पहुँचे तो सम्पूर्ण क्रियाविधि इस प्रकार सम्पादित की गई थी कि अनुðान 2 बजे सम्पन्न हो गया । तत्पश्चात्‌ 23 वें तीर्थंकर भगवान की समवशरण स्थbी पर 23 दीक्षाओं की क्रिया आचार्यश्री द्वारा सम्पादित की जाने bगी । आचार्यश्री द्वारा यह प्रथम आर्यिका दीक्षा समारोह था, सभी बहिनों में अत्यधिक उल्‌bास था, सभी का तन-मन समर्पित था, गुरु चरणों में, 11 आर्यिकाओं की दीक्षा के पश्चात्‌ 12 क्षुल्‌bक दीक्षाएं सम्पन्न हुई । 14 फरवरी को गजरथ परिक्रमा के पश्चात्‌ जब आचार्यश्री मंच पर ससंघ विराजमान थे । "पुष्‌प' जी ने अपना सिर गुरु चरणोंमें रखा और अनायास गुरुदेव की पिच्‌िछका "पुष्‌प' जी के मस्तक पर आशीष से अभिसिंचित करने bगी । महा महोत्सव के प्रतिðाचार्य को महामहोत्सव के प्रणेता गुरुवर का यह आशीष जन्मों-जन्मों तक गौरवान्वित करता रहेगा । (श्रेयांस सांधेbीय, पाटन) 9. सदोष प्रतिमा की प्रतिðा नहीं - पथरिया (दमोह) म.प्र. में पंचकल्‌याणक प्रतिðा महोत्सव मार्च 1990 में होने जा रहा था । भगवान बाहुबbि की प्रतिमा को यथा स्थान अन्य प्रतिðाचार्य विराजमान करा चुके थे । प्रतिðा में सान्निध्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का ससंघ का था । "पुष्‌प' जी प्रतिðा हेतु जब पथरिया पहुँचे और प्रतिमा को देखा तो उसे वेदी से अbग कर दिया . वह प्रतिमा दोष पूर्ण थी । बहुत ही विषमता आ गई क्‌योंकि उसी जिन बिम्ब की प्रतिðा प्रमुख थी । समिति ने "पुष्‌प' जी से बहुत अनुनय वियन की, इस प्रतिमा में थो¶ड़ा सा ही दोष है, समाज की भावना इससे जुड़ीहै, पर वे टस से मस नहीं¶ हुए । तब आचार्यश्री के समक्ष समस्या रखी गई तो आचार्यश्री ने कहा, कि जो शाóानुसार न हो, उसकी प्रतिðा नहीं होना चाहिए, "पुष्‌प' जी का निर्णय उचित है । तब सागर के पंडित हुकुमचंद्र जी बाहुबbि की जो प्रतिमा प्रतिðा को bाये थे, वह उस मंदिरजी में विराजमान करा के प्रतिðा की गई एवं जिनबिम्ब की प्रतिðा नहीं की गई । (संतोषकुमार (बैटरी वाbे), सागर) 10.कोई समझौता नहीं - पण्डित गुbाबचंद्र पुष्‌प वbी (जिbा उदयपुर राजस्थान) मई 1989 में पंचकल्‌याणक प्रतिðा करा रहे थे । राजस्थान की भीषण गर्म सारे भारत में प्रसिद्ध है । मई के महीने में सूर्य अपनी ज्‌वाbा से सारे संसार को तá करता है । ऐसे समय धर्म की साधना करने के bिये भीषण एवं कïकारी संताप सहना होता है । दोपहर की भीषण गर्म को देखते हुए bोगों ने पण्डिज़ती से अनुरोध किया कि भगवान की दीक्षा समारोह प्रातः ही सम्पन्न करा bिया जावे । उन्होंने शाóोक्त नियमों का उल्‌bेख करते हुए जन-समुदाय के सुझाव का तत्काb निषेध करते हुये कहा - प्रतिðा शाóानुसार दीक्षा मध्यान्ह में ही सम्पन्न होगी । इस समारोह में उपस्थित पंडित बाबूभाई व पंडित ज्ञानचंदजी (विदिशा) ने सैद्धांतिक दृ¶ढ़ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की । प्रतिðा शाóों में उल्‌िbखित नियमों के प्रति "पुष्‌प' जी सदैव दृढ़ रहे हैं । आज भी उनकी दृढ़ता अनुðानों में परिbक्षित होती है । (पं. सागरमb, विदिशा) 11. फरवरी 1999, दbपतपुर (सागर) म.प्र. में मुनिश्री सुदर्शनसागरजी के मंगb सान्निध्य मे आयोजित गजरथ महोत्सव, जन्म कल्‌याणक जुbूस के साथ सौधर्म इन्द्र (श्री वीरेन्द्रकुमार जी, सागर) ने राजसी वेशबूषा वाbे वóस हार, मुकुट पहनकर जैसे ही विधिनायक प्रतिमा को उठाना चाहा, "पुष्‌प' जी ने रोक दिया, "आप इन वóोंमें प्रतिमा नहीं bे जायेंगे ।'' वीरेन्द्र ने कहा - पंडित जी ! मैंने यह वó विशेष रुप से कटनी से मंगाये हैं, यह नये हैं तथा इनका प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है । इन वóों में क्‌या आपत्ति है ?'' तब "पुष्‌प' जी ने समझाया ""आपके वó नये एवं शुद्ध हैं, इनमें प्रतिमा bे जाने में कोई आपत्ति नहीं, परन्तु जन्मकल्‌याणक जुbूस में कई शहरों के श्रावक आये हैं, वे देेखेंगे कि सौधर्म इन्द्र राजसी वóों में प्रतिमा bेकर जा रहे हैं, जब अन्य जगह पंचकल्‌याणक होगा, तो वहाँ का सौधर्म इन्द्र भी राजसी वóों का उपयोग करना चाहेगा, वह किराये के भी हो सकते हैं, जिन्हें न जाने किस किस ने पहना होगा । यदि उन्हें रोका जायेगा तो वह कहेंगे वहाँ तो सौधर्म इन्द्र ने इसी प्रकार के वó पहिने थे, और एक गbत परम्परा की शुरुआत हो जावेगी ।'' (पं. सनतकुमार, रजवांस)

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